उद्धव ठाकरे का अगले 60 दिन का एजेंडा ! तभी तय होगा शिंदे का रहेगा राज या ठाकरे का

शिवसेना से बगावत करके बाला साहब ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे न सिर्फ उनसे अलग हुए, बल्कि अपनी सियासी पार्टी भी बनाई। अब राज ठाकरे की पार्टी का महाराष्ट्र में इस वक्त क्या हश्र है यह किसी से भी छुपा हुआ नहीं है।

(एन एल एन मीडिया – न्यूज़ लाइव नाऊ): शिवसेना का चुनाव निशान तीर-कमान उद्धव ठाकरे से एकनाथ शिंदे को मिलने के बाद महाराष्ट्र की सियासत में लगातार गर्मी बनी हुई है। विशेषज्ञों का मानना है कि कानूनी रूप से शिवसेना के पास अभी सुप्रीम कोर्ट का रुख करने का रास्ता तो बचा है, लेकिन उसके साथ उद्धव ठाकरे एक नई व्यूह रचना भी रच रहे हैं। उद्धव ठाकरे आने वाले महानगर पालिका के चुनावों में “इमोशनल ग्राउंड” पर चुनावी मैदान में उतरने की तैयारी कर रहे हैं। सियासी जानकारों का मानना है कि उद्धव ठाकरे अब नए चुनाव निशान के साथ सियासी मैदान में लोगों को भावनात्मक तौर पर जोड़कर आगे की सत्ता बढ़ाने में कामयाब तो हो सकते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें अभी कई और परीक्षाएं भी देनी होगी। तभी तय हो सकेगा कि एकनाथ शिंदे का राज रहेगा या उद्धव ठाकरे के हिस्से में भी महाराष्ट्र की सियासत पुराने दिन आ सकेंगे।

शिवसेना के चुनाव चिन्ह और पार्टी की लड़ाई में एकनाथ शिंदे गुट को जीत मिली है। उद्धव गुट से जुड़े वरिष्ठ नेता बताते हैं कि उनके नेता कानूनी तौर पर आगे लड़ाई जारी रखेंगे, लेकिन चुनाव चिन्ह छिनने के बाद पहली बार सियासी मैदान में उद्धव गुट भावनात्मक रूप से मुंबई की जनता से रूबरू होने वाले हैं। महाराष्ट्र की सियासत में इस सबसे बड़े परिवर्तन के बाद अब पहला चुनाव मुंबई महानगरपालिका का होने वाला है। सूत्रों कि माने तो उद्धव ठाकरे के पास भावनात्मक रूप से मैदान में उतरने के सिवा लोगों से सीधे जुड़ने का दूसरा और कोई बड़ा जरिया नहीं हो सकता है। शितोले कहते हैं कि पूरे महाराष्ट्र को पता है जब बाला साहब ठाकरे ने अपनी सियासी विरासत उद्धव ठाकरे को सौंपी तो कैसे महाराष्ट्र और मुंबई की जनता ने उद्धव ठाकरे में अपना भरोसा जताना शुरू किया। इसी दौर में बगावत करके बाला साहब ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे न सिर्फ उनसे अलग हुए, बल्कि अपनी सियासी पार्टी भी बनाई। अब राज ठाकरे की पार्टी का महाराष्ट्र में इस वक्त क्या हश्र है यह किसी से भी छुपा हुआ नहीं है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि उद्धव ठाकरे कि बाला साहब की सौंपी गई सप्ता की स्वीकार्यता सिर्फ इसीलिए हुई कि उनको खुद बाला साहब ने आगे किया था। राजनीतिक विश्लेषक ओम दादाभाऊ खेलगांवकर कहते हैं कि अगर अब उद्धव ठाकरे उन्हीं बाला साहब ठाकरे की ओर से उनको सौंपी गई सत्ता का बड़ा सियासी दांव लेकर भावनात्मक रूप से महाराष्ट्र मुंबई की जनता के बीच में जाने की तैयारी कर रहे हैं तो यह उनके लिए एक गेम चेंजर साबित हो सकता है। लेकिन इसमें भी कई चुनौतियां हैं।

सूत्रों के मुताबिक अगले 60 दिनों के भीतर जब तक कि मुंबई महानगरपालिका के चुनावों की तारीख नहीं घोषित हो जाती तब तक उद्धव गुट भावनात्मक रूप से लोगों से मिलकर अपनी बात भी रखेगा। वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हिमांशु शितोले कहते हैं कि उद्धव ठाकरे का यह भावनात्मक रूप से चला जाने वाला सियासी दांव कितना कारगर होगा यह तो बीएमसी के चुनाव और उनके परिणामों से ही पता चलेगा। लेकिन महाराष्ट्र की राजनीति में हुआ या बड़ा घटनाक्रम अगले कई चुनावों तक सियासी तौर पर गर्म रहने वाला है।

सियासी जानकारों का कहना है कि महाराष्ट्र की राजनीति में यह देखना भी बड़ा दिलचस्प होगा कि बगैर ठाकरे परिवार की शिवसेना का भविष्य और सियासी सफर किस तरह से चलने वाला है। वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक एएन धर कहते है कि देश की सियासत में स्थानीय सियासी दलों को खड़ा करने वालों के परिवार के पास ही ज्यादातर सत्ता स्थानांतरित होती रही है। इसमें चाहे समाजवादी पार्टी हो या अकाली दल हो। राष्ट्रीय लोकदल हो या दक्षिण की कई सियासी पार्टियां हो। सबकी सस्ता का स्थानांतरण पार्टी को स्थापित करने वाले मुखिया के परिवार में ही रहा है। बालासाहेब ठाकरे ने भी इसी को आगे बढ़ाते हुए अपने बेटे उद्धव ठाकरे को सत्ता हस्तांतरित की, लेकिन सियासी उथल-पुथल और पार्टी की टूट-फूट में अब महाराष्ट्र में समीकरण कुछ और हो गए हैं।

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