‘चोर उल्टा कोतवाल को डांटे’ ! नागरिकता संशोधन बिल का पूर्वोत्तर राज्यों में हो रहा है भारी विरोध !

संविधान के आर्टिकल 371 को बढ़ाने के साथ ही असम समझौते की उपधारा 6 को लागू करते हुए राज्य के मूल निवासियों के राजनीतिक अधिकार, नस्लीय पहचान, सांस्कृतिक और साहित्यिक विरासत के अलावा अन्य अधिकारों के संरक्षण का प्रस्ताव है

(एनएलएन मीडिया – न्यूज़ लाइव नाऊ) : मंगलवार को नागरिकता (संशोधन) बिल 2016 पर संसद में चर्चा के दौरान केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि केंद्र सरकार नैशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस यानी एनआरसी को लेकर काफी गंभीर है। उन्होंने कहा कि एनआरसी में बिल की वजह से कोई भेदभाव नहीं होगा। इस बीच बिल के विरोध में शिवसेना और असम गण परिषद जैसी पार्टियों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चल रहे एनआरसी पर बिल का असर होगा।इसकी तात्कालिक वजह नागरिकता (संशोधन) बिल, 2016 है, जिसके तहत बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता मुहैया कराने का प्रावधान है। 1985 के असम समझौते में नागरिकता प्रदान करने के लिए कटऑफ तिथि 24 मार्च 1971 थी। नागरिकता बिल में इसे बढ़ाकर 31 दिसंबर 2014 कर दिया गया है।बीजेपी कहती है कि ऐसे प्रस्ताव से असम को मुस्लिमों (पूर्वोत्तर में बीजेपी का चेहरा माने जाने वाले हेमंत बिस्व शर्मा उन्हें जिन्ना कहते हैं) के एकाधिकार में आने से रोका जा सकेगा। पार्टी मानती है कि राज्य में मुस्लिम बड़ी राजनीतिक ताकत न बन सकें यह सुनिश्चित करने के लिए असम को अतिरिक्त हिंदू आबादी की जरूरत है।असम में अवैध शरणार्थियों की पहचान धार्मिक आधार पर नहीं हुई है और वहां के ज्यादातर लोग चाहते हैं कि बांग्लादेश से आए शरणार्थी (मुस्लिम और हिंदू दोनों) जो संयोग से बंगाली भी बोलते हैं, उन्हें हटाया जाना चाहिए। असम के लोगों को डर है कि बांग्लादेश से आए अवैध शरणार्थी उनकी संस्कृति और भाषाई पहचान के लिए खतरा हैं।
बंगाली बहुल बराक घाटी में ज्यादातर लोगों ने धार्मिक आधार पर नागरिकता नियम का स्वागत किया है। उन्हें उम्मीद है कि इससे नैशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) से वे बच सकेंगे। अब तक तकरीबन 40 लाख लोगों का नाम एनआरसी में नहीं है।
वेस्टर्न और सेंट्रल असम के 8 जिलों में बंगाली बोलने वाले मुस्लिम केवल गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता देने के प्रस्ताव के खिलाफ हैं। अल्पसंख्यकों में आधार रखने वाली पार्टी एआईयूडीएफ के अध्यक्ष बदरुद्दीन अजमल (बंगाली बोलने वाले अरबपति कारोबारी) भी प्रस्तावित बिल के खिलाफ राज्य के 70 संगठनों (असम गण परिषद और आसू) के आंदोलन को अपना समर्थन दे रहे हैं।
आबादी प्रतिशत के आधार पर जम्मू-कश्मीर के बाद असम मुस्लिमों की आबादी वाला दूसरा सबसे बड़ा राज्य है। असम की 3 करोड़ आबादी में ज्यादातर बंगाली बोलने वाले मुस्लिम समुदाय की तादाद करीब 34 प्रतिशत है। आबादी में कम असमी बोलने वाले मुस्लिम सभी धर्मों के शरणार्थियों को छूट देने के विरोध में हैं। संविधान के आर्टिकल 371 को बढ़ाने के साथ ही असम समझौते की उपधारा 6 को लागू करते हुए राज्य के मूल निवासियों के राजनीतिक अधिकार, नस्लीय पहचान, सांस्कृतिक और साहित्यिक विरासत के अलावा अन्य अधिकारों के संरक्षण का प्रस्ताव है। आर्टिकल 371 में राज्य के मूल निवासियों को संसद और विधानसभा में आरक्षण का प्रावधान है। लेकिन इससे बंगाली हिंदू और बंगाली मुस्लिम दोनों पर असर पड़ सकता है। पहले ही दोनों ने एनआरसी का विरोध किया था। बंगाली बहुल पूर्वोत्तर के सभी राज्य (आंशिक रूप से त्रिपुरा) इसके खिलाफ हैं। मेघालय और नगालैंड (जहां क्षेत्रीय पार्टी के साथ बीजेपी की सरकार) के अलावा मिजोरम जहां एनडीए की सहयोगी एमएनएफ (मिजो नैशनल फ्रंट) सत्ता में है, वे इस पर पुनर्विचार के पक्ष में हैं। मिजोरम को डर है कि बांग्लादेश के चकमा बौद्ध इस कानून का फायदा उठा सकते हैं। मेघालय और नगालैंड को बंगाली शरणार्थियों की बहुलता की आशंका है। बीजेपी शासन वाले अरुणाचल प्रदेश में नए कानून से चकमा और तिब्बती लोगों को लाभ होने का डर है। मणिपुर चाहता है कि इनर लाइन परमिट सिस्टम के जरिए राज्य में बाहरी लोगों का प्रवेश रोका जाए। त्रिपुरा में बीजेपी की सहयोगी आईपीएफ और विपक्षी आईएनपी, केंद्र सरकार के इस कदम का विरोध कर रहे हैं। असम गण परिषद (एजीपी) ने इस मुद्दे की वजह से एनडीए का साथ छोड़ दिया। मेघालय में सत्ता में बीजेपी की सहयोगी एनपीपी ने भी इसी तरह के कदम से इनकार नहीं किया है। बीजेपी को पूरी उम्मीद है कि असम के छह जातीय समूहों को एसटी (अनुसूचित जनजाति) दर्जा देने के बाद नए कानून के खिलाफ माहौल बदलेगा। इन समूहों की असम की आबादी में 27 प्रतिशत की हिस्सेदारी है और राज्य की 126 में से 40 सीटों पर प्रभुत्व है।

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